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हरिवंश गाथा

अमृता भारती

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :292
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 111
आईएसबीएन :81-263-1080-4

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आचार्य जिनसेन (आठवीं शताब्दी) की अप्रतिम संस्कृत काव्यकृति, हरिवंशपुराण का हिन्दी कथासार। भारतीय संस्कृति और प्राचीन इतिहास तथा अपनी परम्परा से भी परिचित कराने वाली एक साहित्यिक रचना।

Harivansh Gatha - A Hindi Book by - Amrita Bharti हरिवंश गाथा - अमृता भारती

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आचार्य जिनसेन (आठवीं शताब्दी) की अप्रतिम संस्कृत काव्यकृति ‘हरिवंशपुराण’ का हिन्दी कथा सार है हरिवंश गाथा। प्रस्तुत पुस्तक की लेखिका डॉ. अमृता भारती का पूरा प्रयास रहा है कि छियासठ सर्गों में, विविध छन्दों में निबद्ध यह विशाल काव्य कृति अपने दार्शनिक विस्तार से निकलकर सहज-सरल रूप में हृदयग्राहिणी होकर जन-जन तक पहुँचे।

इस कृति में बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ के त्यागमय जीवनचरित के साथ-साथ इस वंश में उत्पन्न तीर्थकरों, महान राजाओं, नारायणों, प्रतिनारायणों के अलावा वासुदेव कृष्ण, बलभद्र, कृष्णापुत्र पद्युम्न तथा पाण्डवों और कौरवों का लोकप्रिय चरित्र बड़े प्रभावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया गया है। दूसरे शब्दों में, इन महापुरुषों के जीवन की अप्रत्याशित एवं चमत्कार पूर्ण घटनाओं का औपन्यासिक वर्णन इस कृति की अपनी विशेषता है। चक्रवर्ती राजाओं के विकट राग और तीर्थकरों के उत्कट विराग के दोनों ध्रुवान्तों का सजीव चित्रण हमारे जीवन जगत् की भौतिकता और उसकी दार्शनिकता को समझने में मदद करता है। निश्चित ही हरिवंश-पुराण एक ऐसी महान कृति है जिसमें सिर्फ जैन धर्म के विशद उपादानों का विवेचन ही नहीं हुआ है बल्कि भारतीय इतिहास की बहुविध सामग्री भी इसमें भरी पड़ी है।
आशा है इसके अध्ययन से हिन्दी पाठक और स्वाध्यायकर्ता लाभान्वित तो होंगे ही, भारतीय संस्कृति और प्राचीन इतिहास तथा अपनी परम्परा से भी परिचित हो सकेंगे।

दो शब्द


आचार्य जिनसेन विरचित ‘हरिवंश पुराण’ का अध्ययन मेरे लिए न केवल बौद्धिक या मानसिक बल्कि एक आत्मिक अनुभव का विषय रहा है। मैं जन्म से जैन नहीं हूँ, पर कोई पुरातन संस्कार मेरे अन्दर बना रहा, जिसे मैंने जैन मन्दिरों में, तीर्थकरों की मूर्तियों के समक्ष, इस धर्म के मुनियों आचार्यों के सान्निध्य में सहज मिली अन्तरंग ध्यानावस्था के रूप में अनुभव किया। ‘हरिवंश पुराण’ पर काम करते हुए यह संस्कार रोशन होता चला गया। तीर्थकर की वीतराग ज्योति की लौ बहुत दिनों तक मेरे अन्दर संचरण करती रही। मुझे लगा मेरी साधना ने अगला चरण लिया है।

हरिवंश पुराण इस वंश में उत्पन्न तीर्थकरों, महान राजाओं, चक्रवर्तियों, बलभद्रों, नारायणों तथा प्रतिनारायणों के जीवन का इतिहास है-उनके महनीय चरित और कार्यों का विशद व्याख्यान। इसमें राजाओं का उत्कट राग है और तीर्थकरों का उत्कट विराग। इस ग्रन्थ में जिनसेनाचार्य की प्रातिभ लेखनी ने इन दोनों सत्यों को काव्यात्मक उत्कर्ष प्रदान किया है। हर प्रसंग में कवि की अमोघ दृष्टि और उसके कवित्व सौन्दर्य का साक्षात् दर्शन प्राप्त होता है।
हमारे पुराणपुरुषों की यह कथा, जो गाथा की तरह हृदयग्राहिणी और सुन्दर है, अपने दार्शनिक विस्तार से निकल कर सहज सरल रूप में आप तक पहुँचे, मेरी कोशिश रही है।

इस पुस्तक की पाण्डुलिपि किसी दराज में ही रखी रहती, यदि भाई साहब (रमेशचन्द्र जी) ने इसे पढ़कर अपनी स्वीकृति की मुहर न लगायी। होती। वे स्वस्थ रहें, दीर्घजीवी हों यही मेरी मंगल कामना है। मैं डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय के प्रति अपना आभार प्रकट करती हूँ, जिन्होंने भारतीय ज्ञानपीठ में अपने आगमन के साथ ही इस ठहरे हुए काम को गति प्रदान की और इस पुस्तक का प्रकाशन अविलम्ब सम्भव हो सका।

अमृता भारती


हरिवंश गाथा

प्रथम प्रकरण

कथा-प्रसंग


हरिवंश-कथा का आरम्भ एक प्रश्न से होता है, जिसे राजा श्रेणिक ने गौतम गणधर से पूछा था।
चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर का ‘ज्ञान कल्याणक’ उत्सव सम्पन्न हो चुका था। छियासठ दिन तक मौनपूर्वक विहार करते हुए भगवान राजा श्रेणिक के नगर राजगृह में आये और लोगों को प्रतिबुद्ध करने के लिए विपुलाचल पर विराजमान हुए। देवों ने समवसरण की रचना की और इन्द्र की प्रेरणा से इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायु भूति आदि पण्डितों ने अपने शिष्यों के साथ वहाँ दीक्षा धारण की। इन्द्रभूति भगवान के गणधर बने और गौतम गणधर के नाम से प्रसिद्ध हुए।
भगवान महावीर के इस समवसरण में राजा श्रेणिक भी अपनी प्रजाओं के साथ नित्यप्रति आता था औरी तीर्थकार भगवान की सेवा कर उनका धर्मोपदेश ग्रहण करता था।

एक दिन भगवान का धर्मोपदेश पूरा हुआ। तीनों लोकों की कमलिन मोक्षमार्ग के ज्योति स्पर्श से प्रमुदित हो उठी। दिशाएँ निर्मल हो गयीं और जिस तरह बची हुई धूल को बादलों की पंक्तियाँ नीचे बैठा देती हैं, उसी प्रकार भगवान की धर्मवेदना ने समस्त लोकों के जीवों की भ्रान्ति को शान्त कर दिया।
धर्मोंपदेश के बाद देवों ने भगवान की वाणी का अनुशीलन किया और कुछ देव वन के बीच स्थित एक मुनि का स्तवन करने लगे। वे दुन्दुभि बजा रहे थे, पुष्पवृष्टि और रत्नवृष्टि द्वारा उन महामुनि की पूजा कर रहे थे।
इन्द्रों से पूजित इन मुनि को देखकर राजा श्रेणिक को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने श्रुतकेवली गौतम गणधर से पूछा, ‘‘पूज्यवर इन्द्र आदि देव जिनकी पूजा कर रहे हैं ये मुनि कौन हैं ? इनका वंश कौन-सा है और आज इन्होंने कौन-सा उत्कर्ष प्राप्त किया है ?’’

गौतम बोले, ‘‘राजन आपन जितशत्रु राजा का नाम सुना होगा। वह हरिवंश का सूर्य था और उसने अपने प्रताप से सभी राजाओं को पराभूत किया था। उनसे राज्य का त्याग कर भगवान महावीर के पास दीक्षा ले ली थी और कठोर तप किया था। आज उसी जितशत्रु को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ है, इसलिए देवों ने उसकी पूजा की है।’’
गणधर ने कथा का सूत्र जोड़ते हुए कहा, ‘‘जब वर्धमान महावीर का जन्मोत्सव हो रहा था, तब यह कुण्डपुर आया था और उनके पिता राजा सिद्धार्थ ने इस मित्र का बहुत सत्कार किया था। राजा जितशत्रु की बड़ी इच्छा थी कि वह अपनी बेटी यशोदा और कुमार वर्धमान का विवाह-मंगल देख सके, किन्तु कुमार तप के लिए चले गये और केवल ज्ञान को प्राप्त कर लोककल्याण के लिए पृथिवी पर विहार करने लगे।

जितशत्रु भी वैरागी होकर तप में लीन हो गया। आज उसी ने केवलज्ञान प्राप्त कर अपने मनुष्य जन्म को सार्थक किया है।’’
राजा श्रेणिक का कुतूहल बढ़ता जा रहा था। उसने अधिक जानने की इच्छा से गौतम गणधर से प्रणामपूर्वक फिर प्रश्न किया, ‘‘भगवान यह हरिवंश कौन सा वंश है ? इसकी उत्पत्ति कब और कहाँ हुई ? इसका आदिपुरुष कौन है ? धर्म, अर्थकाम मोक्ष-इन चार पुरुषार्थों से सम्पन्न कितने राजा इस वंश में हुए हैं ? मैं भरत क्षेत्र में उत्पन्न तीर्थंकरों, चक्रवर्तियों बलभद्रों नारायणों और प्रतिनारायणों का चरित्र सुनना चाहता हूँ, कृपया आप मुझे विस्तार से सुनाएँ।’’
गौतम स्वामी ने कहा, राजन् आपकी जिज्ञासा श्रेष्ठ है। मैं आपसे विस्तारपूर्वक सब कुछ कहूँगा। आप ध्यान से सुनें।’’
इस तरह यह हरिवंश कथा गौतम गणधर ने राजा श्रेणिक को विपुलाचल पर सुनायी थी।
कथा समाप्त करते हुए गौतम गणधर ने बताया, ‘‘राजा श्रेणिक, जिस जितशत्रु के प्रसंग से तुम्हारे मन में हरिवंश को जानने की जिज्ञासा हुई थी, वह राजा जितारि का पुत्र था।

जब द्वारिका का पतन हो गया और नियतिवश श्रीकृष्ण बड़े भाई जरत्कुमार के हाथों मृत्यु का ग्रास बने, तब श्रीकृष्ण की ही इच्छा से जरत्कुमार को राजा बनाया गया था। धीर-वीर जरत्कुमार ने अपनी सन्तति से इस महान हरिवंश की रक्षा की थी। इसी वंश परम्परा में अनेक राजा हुए, जो अपने युवा पुत्रों पर राज्यलक्ष्मी का भार सौंपकर तप के लिए वन में चले गये। हजारों बरसों बाद इसी वंश में राजा कपिष्ठ हुआ, फिर उसका पुत्र अजातशत्रु फिर शत्रुसेन फिर उसका पुत्र जितारि राजा हुआ।

उसके पुत्र जितशत्रु को तुम जानते ही हो, इसने अन्त में कर्मबन्ध से रहित होकर अविनाशी मोक्षपद प्राप्त किया था।’’
राजा श्रेणिक ने हजारों अन्य राजाओ के साथ इस पवित्र पुराण को सुना और सम्यग्दर्शन से प्रकाशित होकर सब अनुयोगों में प्रवीणता प्राप्त की। उसने राजगृह नगर को भव्य जिन मन्दिरों से व्याप्त कर दिया और सारे मगध देश में-नगर ग्राम, बस्ती, पर्वत और वन वनान्तरों में-अपने प्रभाव से असंख्य जिन मन्दिरों का निर्माण कराया।


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